जब हम आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तो देश के लिए उलमा, बुद्धिजीवियों और उर्दू पत्रकारों के बलिदान को हम कैसे भूल सकते हैं?
डॉ यामीन अंसारी
भारत को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष हो चुके हैं। जब हम अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ को ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ के शीर्षक के साथ मना रहे हैं, तो हमें स्वतंत्रता संग्राम के हर महत्वपूर्ण पहलू को सामने रखना चाहिए। आज यह धारणा बनाने की कोशिश की जा रही है कि आजादी का यह ‘अमृत महोत्सव’ बस एक वर्ग की देन है। जबकि जिस वर्ग ने स्वतंत्रता संग्राम में सबसे प्रमुख भूमिका निभाई, जिसने देश की आजादी के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानी दी, अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया, दुर्भाग्य से आज उसी वर्ग विषेश को नजरअंदाज करने का प्रयास किया जा रहा है।
उसकी उपेक्षा ही नहीं, बल्कि उनकी देशभक्ति और वतन परस्ती पर भी सवाल खड़े करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसे में स्वतंत्रता संग्राम के उन पहलुओं को सामने लाना जरूरी है, जिन पर आम तौर पर जाने या अनजाने में चर्चा ही नहीं की जाती।
15 अगस्त 1947 का दिन
इसमें कोई दो राए नहीं कि पूरे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान धर्म और ज़ात पात की परवाह किए बिना बड़ी संख्या में लोगों ने इसमें भाग लिया, लेकिन कई ऐसी महत्वपूर्ण हस्तियां भी सामने आईं, खासकर मुस्लिम विद्वान, बुद्धिजीवी और पत्रकार, जिन्होंने अपने देश के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। यह आजादी हमें आसानी से नहीं मिली है, बल्कि हमारे पूर्वजों को इसके लिए लंबे समय तक संघर्ष करना पड़ा। इस संघर्ष के दौरान, विभिन्न आंदोलन शुरू किए गए, जिहाद के फतवे जारी किए गए, सैकड़ों लोगों को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया, हजारों लोगों को जेल की काल कोठरी में डाल दिया गया।
इनमें वह उलमा, मुस्लिम बुद्धिजीवी और उर्दू पत्रकार भी शामिल हैं जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। अंतत: 15 अगस्त 1947 का दिन एक नया सवेरा लेकर आया, भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी मिली।
यह हमारी बे-तवज्जोही भी है और कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता भी कि इतिहास के पन्नों से मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों को मिटाने का प्रयास किया जा रहा है। इतिहासकारों के एक समूह ने कुछ हद तक ईमानदारी दिखाते हुए आजादी के कुछ मुस्लिम मुजाहिदीन का जिक्र किया है, लेकिन और भी बहुत से ऐसे नाम हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना विषेश योगदान दिया, दुर्भाग्य से उन्हें न तो हम खुद याद रखना चाहते हैं और न ही दूसरे लोग उनकी उपलब्धियों और उनके कारनामों को सामने लाने की कोशिश करते हैं। बल्कि अब तो स्थिति यह है कि कुछ नाम जो अभी भी लोगों की जुबान पर हैं, उन्हें भी भुला देने चका प्रयास किया जा रहा है।
ज़िंदा क़ौमें अपने इतिहास को कभी फरामोश नहीं करतीं
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ज़िंदा क़ौमें अपने इतिहास को कभी फरामोश नहीं करतीं। बल्कि वह अपने पूर्वजों की उपलब्धियों को अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेज कर रखती हैं, उनके बलिदानों और उनकी उपलब्धियों का मर्सिया न पढ़कर उनके जीवन से सबक सीखती हैं। इसलिए हम सबकी यह जिम्मेदारी है और हमारे इतिहासकारों, हमारे पत्रकारों, हमारे बुद्धिजीवियों को, जहां तक संभव हो, अपने पूर्वजों के बलिदानों को सामने लाना चाहिए और नई पीढ़ी को इसके प्रति जागरूक करना चाहिए।
आज हमारी नई पीढ़ी में बहुत कम ऐसे होंगे जो अपने बड़ों के बलिदान से वाकिफ हों, या उनकी उपलब्धियों को जानने में रुचि रखते हों। इसलिए आवश्यक है कि हम अपनी नई पीढ़ी को अपने शानदार अतीत से वाक़िफ करवाएं और इस देश के लिए हमारे पूर्वजों ने क्या क्या क़ुर्बानियां दी हैं, उससे अवगत कराएं। आज की स्थिति में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि हम अपने पूर्वजों के बलिदान को बार-बार दोहराएं। यही उन पूर्वजों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत
यद्यपि भारत को स्वतंत्रता 15 अगस्त 1947 को मिली, परन्तु स्वतंत्रता संग्राम की नींव 1857 से पहले ही रख दी गई थी। 1857 का विद्रोह आधुनिक भारतीय इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है, क्योंकि इसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत माना जाता है। उसी समय से मुस्लिम नेतृत्व स्वतंत्रता संग्राम में सबसे आगे रहा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में लाखों लोगों ने भाग लिया था, मगर कुछ ऐसे भी थे जो एक नए प्रतीक के रूप में सामने आए और दूसरों के लिए प्रेरणा का काम किया।
यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने देश के अस्तित्व के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी और इन्हीं लोगों की वजह से हम आज एक आजाद देश में जीवन बिता रहे हैं। इतिहास के पन्नों में कई ऐसी घटनाएं दर्ज हैं, जिनसे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस देश के लिए मुसलमानों ने क्या-क्या ज़ुल्म सहे और कैसी कैसी मुसीबतें उठाईं।
इसमें कोई शक नहीं कि भारत की आजादी की कहानी और इतिहास मुसलमानों के खून से लिखा गया है।ऐतिहासिक संदर्भों से पता चलता है कि भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ खड़े होने, लड़ने और बलिदान देने वालों में 65% मुसलमान स्वतंत्रता सेनानी थे। स्वतंत्रता संग्राम का सिलसिला 1857 से भी बहुत पहले शुरू होता है।
1780 में हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुल्तान ने भारत पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहला संघर्ष शुरू किया था। 1780 और 1790 के दशक में, इन लोगों ने ब्रिटिश आक्रमणकारियों के खिलाफ रॉकेट और तोपों का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की गुमनाम नायिका
इसी तरह, बेगम हजरत महल, एक महिला होने के नाते, आज़ादी की पहली लड़ाई की एक गुमनाम नायिका थीं, जिन्होंने ब्रिटिश चीफ कमिश्नर सर हेनरी लॉरेंस को ख़ौफज़दा कर दिया था और 30 जून 1857 को अंग्रेजों को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इस बीच, अल्लामा फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी को आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के इरादों का एहसास पहले ही हो चुका था।
उन्होंने दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद में जुमे की नमाज के बाद ख़िताब 4किया और एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद करने की बात कही गई थी। जिहाद के इस फतवे पर मुफ्ती सदरुद्दीन खान, मौलवी अब्दुल कादिर, काजी फैजुल्ला, मौलाना फैज अहमद बदायूंनी, वजीर खान अकबराबादी, सैयद मुबारक हुसैन रामपुरी, सैयद मुहम्मद नजीर हुसैन, नूर जमाल, अब्दुल करीम, सिकंदर अली, मुफ्ती इकरामुद्दीन, मुहम्मद जियाउद्दीन, अहमद सईद, मुहम्मद अनवर खान, मुहम्मद करीमुल्लाह, सईद शाह नक्शबंदी, मौलवी अब्दुल गनी, मुहम्मद अली, सरफराज अली, सैयद महबूब अली, मुहम्मद हामीउद्दीन , मौलवी सईदुद्दीन फरीदुद्दीन, सैयद अहमद, इलाही बख्श, मुहम्मद अंसार अली, हफीजुल्ला खान, एम नूरुल हक, मुहम्मद रहमत अली खान, मुहम्मद अली हुसैन, सैफुर रहमान, मुहम्मद हाशिम, सैयद अब्दुल हमीद, सैयद मुहम्मद आदि ने हस्ताक्षर किए।
अल्लामा फजले हक खैराबादी का जिहाद का फतवा
अल्लामा फजले हक़ ख़ैराबादी के द्वारा जिहाद का फतवा जारी करना था कि अंग्रेजों के खिलाफ पूरे भारत में एक लहर दौड़ गई और गली गली, गाँव गाँव, शहर शहर, एक संघर्ष था जिसने ब्रिटिश सरकार की चूलें हिला दीं। अंग्रेजों ने भी अपनी रणनीति बनाते हुए लोगों को डरा धमका कर और अनगिनत लोगों की हत्याएं करके इस आंदोलन को कुचल दिया।
जनवरी 1859 में अल्लामा फजले हक़ ख़ैराबादी के विरुद्ध देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें कालापानी की सजा सुनाई गई। उन्होंने अपना केस खुद लड़ा और कोर्ट में कहा, “जिहाद का फतवा मेरे द्वारा लिखा गया है और मैं अभी भी अपने इस फतवे पर क़ायम हूं।”
फजल हक़ ख़ैराबादी को 12 फरवरी, 1861 को फांसी दे दी गई। इसी प्रकार मौलवी अहमदुल्ला शाह ने देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1857 में मुस्लिम विद्वानों और उलमा का एक बड़ा समूह तैयार हो गया, जिसने देश की जनता में स्वतंत्रता के लिए लड़ने का जज़्बा पैदा किया और स्वतंत्रता आंदोलन की मज़बूत नींव रखी। इनमें अल्लामा फज़ले हक़ ख़ैराबादी और मौलाना अहमदुल्ला शाह के अलावा मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी, मौलाना सरफराज़, मुफ्ती अहमद काकोरवी, मुफ्ती मज़हर करीम दरियाबादी, हाजी अमदुल्लाह मुहाजिर मक्की, मौलाना रशीद अहमद, मौलाना मुनीर नानोत्वी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
(लेखक उर्दू दैनिक इन्क़लाब, दिल्ली, के रेजिडेंट एडिटर हैं)
लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

