जब हम संविधान की प्रस्तावना को पढ़ते हैं, तो हमें लगता है कि वर्तमान में हम भारत के लोग सभी एक हैं और संविधान की सच्ची रूह को बचाने में हम कामयाब हैं
लेख: डॉo यामीन अंसारी
हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए और उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी ) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.”
भारतीय संविधान की यह प्रस्तावना हमारे संविधान का संक्षिप्त परिचय है, जिसका एक शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण है. इसका उद्देश्य भारत के लोगों का मार्गदर्शन करना, संविधान के सिद्धांतों और नियमों को प्रस्तुत करना, लोगों की आशाओं, अपेक्षाओं और इरादों को व्यवहार में लाना और उस स्रोत की घोषणा करना है जिससे यह दस्तावेज़ प्राप्त हुआ है. इस प्रस्तावना को पूरे संविधान का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रस्तावना कहा जा सकता है.
26 जनवरी 1950 से पहले का भारत
हमारा देश 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हुआ था, लेकिन एक स्वतंत्र देश तभी अस्तित्व में आता है जब उसका अपना संविधान और व्यवस्था होता है. इस संबंध में भारत को एक स्वतंत्र देश का दर्जा 26 जनवरी 1950 को मिला जब हमारी संविधान सभा के 366 सदस्यों ने संविधान पारित किया.
इससे पहले ब्रिटिश सरकार ने भारत स्वतंत्रता अधिनियम के तहत देश की बागडोर हमारे नेताओं को सौंपी थी. यानी 26 जनवरी 1950 से पहले हमारे देश में लगभग वही क़ानून लागू थे जो ब्रिटिश संसद ने 1935 में पारित किए थे, संशोधित औपनिवेशिक कानून.
हालाँकि, आज़ादी के तुरंत बाद, 28 अगस्त 1947 को, डॉo भीम राव अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक संवैधानिक समिति का गठन किया गया था और समिति ने उसी वर्ष 4 नवंबर को संविधान सभा को एक मसौदा भेजा था.
गणतंत्र दिवस
विधानसभा के कुल 166 सत्र हुए और काफी विचार-विमर्श के बाद, दो साल, 11 महीने और 18 दिनों के बाद, 308 सदस्यों ने एक स्वतंत्र भारत के संविधान पर हस्ताक्षर किए और इसे 24 जनवरी 1950 को सरकार को भेजा गया. दो दिन बाद 26 जनवरी को सरकार ने इसे मंजूरी दे दी. इस प्रकार यह 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ. बाद में इस तारीख को भारत का गणतंत्र दिवस कहा गया और इसी शीर्षक के तहत हर साल इस दिन गणतंत्र का उत्सव आयोजित किया जाता है.
डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं: “वास्तव में, यह जीवन का एक तरीका था जिसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता दी और ये सिद्धांत कभी भी एक-दूसरे से अलग नहीं होते हैं: इसलिए स्वतंत्रता समानता से अलग नहीं होती है, रिश्ता खत्म नहीं होता है. इसी तरह, स्वतंत्रता और समानता भाईचारे से अविभाज्य हैं.
स्वतंत्रता समानता के बिना कई लोगों को श्रेष्ठता देती है. समानता व्यक्तिगत कार्रवाई को कुचल देती है यदि यह स्वतंत्रता से संबंधित नहीं है. साथ ही, भाईचारे के बिना, स्वतंत्रता और समानता चीजों के प्राकृतिक प्रवाह को बनाए नहीं रख सकती.
लोकतांत्रिक देश की नींव
आइए अब भारत के संविधान की इस प्रस्तावना, इसके उद्देश्यों और विधायकों के इरादों के आलोक में वर्तमान स्थिति को देखें. इसमें कोई संदेह नहीं है कि मानवता के प्रति विश्वास, नैतिक मूल्य और ईमानदारी लोकतंत्र की सफलता की कुंजी है. साथ ही समानता, सद्भाव, भाईचारा और देशभक्ति ऐसे मूल्य हैं जो किसी भी लोकतांत्रिक देश की नींव को मजबूत करते हैं.
आज भी 72 साल बाद तमाम उतार-चढ़ावों और आशंकाओं के बीच हमारा लोकतंत्र दुनिया के सामने मजबूती से खड़ा है. इसका असली कारण हमारा संविधान, हमारे मूल्य और परंपराएं, विविधता में एकता और रंगीन सभ्यता और संस्कृति है. ये तमाम चीजें मिलकर इस देश की स्प्रिट का निर्माण करते हैं और यही भावना देश को मज़बूत बनाती है.
अब इस देश के प्रत्येक नागरिक की ज़िम्मेदारी है कि जब भी यह देश के संविधान, मूल्यों, परंपराओं और संस्कृति किसी संकट में आए, तो इसे बचाने के लिए आगे आएं. कुछ ताकतें नहीं चाहतीं कि यह देश अपने गौरवशाली अतीत और अपने मूल्यों और परंपराओं के साथ आगे बढ़े. इसीलिए पिछले कुछ समय से भारत की बहुरंगी और बहुलवादी संस्कृति के ताने-बाने को तितर-बितर करने और एक विशेष संस्कृति, एक विशेष विचार और एक संगठन पर एकाधिकार थोपने का लगातार प्रयास किया जा रहा है. यदि ये शक्तियां अपनी महत्वाकांक्षाओं में सफल हो जाती हैं, तो न तो यह देश और न ही देश का संविधान और लोकतंत्र मजबूत रह पाएगा.
2022 का गणतंत्र दिवस
दुर्भाग्य से हम 2022 का गणतंत्र दिवस ऐसे समय में मना रहे हैं जब न केवल संविधान बल्कि भारत की सच्ची भावना की भी तलाश की जा रही है. संविधान की प्रस्तावना में “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” जैसे शब्द अब अनावश्यक लगते हैं. जन-गणतंत्र को बनाए रखने का संकल्प मिटता जा रहा है. नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय एक सपना बनता जा रहा है. विचार, अभिव्यक्ति, धर्म और पूजा करने की स्वतंत्रता की रक्षा के प्रयास किए जा रहे हैं. समानता और भाईचारे को मजबूत करने के बजाय इसे कमतर किया जा रहा है. देश की एकता और अखंडता को ठेस पहुंच रही है.
42वें संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में शामिल “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्द हमेशा से ही चरमपंथियों की नज़रों में रहे हैं और चरमपंथी संगठन खुलकर कहते रहे हैं कि इन दो शब्दों को संविधान से हटा दिया जाना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट में न केवल उन्हें हटाने की मांग करने वाली एक याचिका दायर की गई थी, बल्कि संसद ने भी शब्दों को हटाने की मांग कर डाली थी. यह कहा गया था कि इसके ज़रिए नागरिकों पर राजनीतिक विचारधारा थोपा जा रहा है, क्योंकि वास्तव में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद राजनीतिक विचारधाराएं हैं.
हरिद्वार में ‘धर्म’ के नाम पर ‘संसद’
बात अब इससे आगे निकल चुकी है. कुछ शक्तियाँ, केवल प्रस्तावना या चंद शब्द नहीं, खुलेआम पूरे संविधान को मिटाने की बात कर रही हैं. कुछ समय पहले हरिद्वार में ‘धर्म’ के नाम से आयोजित ‘संसद’ में ‘भगवा संविधान’ पेश किया गया था. इसे नियमित रूप से छुपाया गया और लोगों से इसे अपनाने का आग्रह किया गया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई.
इससे पहले केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े ने एक जनसभा में घोषणा की थी कि ”हम संविधान बदलने के इरादे से सत्ता में आए हैं.” इसके अलावा, आरएसएस के वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत ने हैदराबाद में अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए देश के मूल्यों के अनुसार संविधान और न्याय प्रणाली में बदलाव की वकालत की थी.
नागरिकता संशोधन अधिनियम
मुद्दा यह है कि समय-समय पर हमें ऐसे बयानों और विचारों का सामना करना पड़ता है जहां भारतीय संविधान, ‘पश्चिमी प्रभावों’ का जिक्र करते हुए, ‘भारतीय मूल्यों’ की उपेक्षा करने के लिए विवाद के स्रोत के रूप में उपयोग किया जाता है. यहां भारतीय मूल्यों का मतलब कुछ और ही है. इसी तरह संविधान में कई अनावश्यक संशोधन किए जा रहे हैं. नागरिकता संशोधन अधिनियम इसका एक प्रमुख उदाहरण है.
इसी तरह आरक्षण का मुद्दा भी बार-बार उठाया जाता है. क्या इस देश के संविधान पर बार-बार मनु अस्मर्ती को ‘भगवा संविधान’ के साथ चर्चा का विषय बनाकर हमला नहीं किया जा रहा है? इसका सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि इन सभी आंदोलनों को सत्तारूढ़ शक्तियों का समर्थन प्राप्त है, अन्यथा पूर्ण रूप से मौन का क्या अर्थ है? हालाँकि, जब हम संविधान की प्रस्तावना को पढ़ते हैं, तो यह अहसास रहता है कि वर्तमान में हम भारत के लोग एक हैं और संविधान की सच्ची भावना को संरक्षित करने में सफल रहे हैं, लेकिन आगे क्या होगा, इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है.
(लेखक इंकलाब दिल्ली के रेजिडेंट एडिटर हैं) yamen@inquilab.com इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं

